- सचिन समर
--------------------विशेषांक समीक्षा------------------
जब सितम्बर 2018 में प्रकाशित होकर हंस का विशेषांक पुस्तक स्टालों पर आ चुका था इस दौरान मुझे कई परिचितों द्वारा सुझाया गया कि तुम उसे खरीदकर पढो..! मैं उस समय प्रयोजनमूलक हिंदी पत्रकारिता में प्रवेश ले चुका था और काफी पहले से फेसबुक पर क्षेत्रीय समस्याओं को लेकर लिखता रहता था उसका अच्छा रिस्पांस भी मिलता था । सोशल मीडिया के ताकत से वाकिफ तो था लेकिन मन में उसके इस्तेमाल को लेकर समझ विकसित नहीं हो पा रही थी या यों कहें कि मुझे बस अपनी (मन की) शक्ति का ध्यान करवाया जाना बाकि था ।
शायद यह मैं ही महसूस कर सकता हूँ कि उस अंक के हर लेख को पढ़ने के दौरान मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे और इसका परिणाम यह निकला नवम्बर 2019 में मैंने "द मतवाला" नामक यूट्यूब चैनल, फेसबुक पेज, ट्विटर अकॉउंट बना लिया । मदद के रूप में आर्थिक सहयोग भी कुछ लोग द्वारा प्राप्त हुआ । और खास बात ये भी थी जिस जिसका लेख मैं पढ़ता उसको फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब पर खोजकर फॉलो भी करता था । इस बेहतरीन अंक के अतिथि सम्पादक रविकान्त और विनीत कुमार हैं । यह विशेषांक कुल नौ खण्डों में विभाजित है.. मेमोरी ड्राइव : आदिकाल, इमाटिकॉन : छवि - भाषा, डिजिटल डेमोक्रेसी : वायरल जनतंत्र, हैशटैग : अस्मिता विमर्श, डू इट योरसेल्फ : रोजमर्रा की रियाजत, इन्टरमीडिया : संगम माध्यम, टाइमलाइन : भविष्य, बुकमार्क और कीबोर्ड ।
इस विशेषांक में शामिल आलेखों की विषय वस्तु इतने विविध व बहुआयामी हैं कि किसी रिसर्च बुक की तरह इसे बरता जा सकता है । पत्र-पत्रिकाओं, टेलीविजन, ऑनलाइन पोर्टल आदि के पत्रकारों समेत सोशल मीडिया के विभिन्न माध्यमों पर सक्रिय कई चर्चित लोगों के आलेख इसमें शामिल किये गए हैं ।
यह अंक पाठकों को न सिर्फ न्यू मीडिया और सोशल मीडिया के अंतर को बताता है बल्कि आवश्यक टूल्स से परिचित भी कराता है । वर्चुअल स्पेस पर हिंदी उर्फ हिंदी 2.0 (विजेंद्र सिंह चौहान), धड़ल्ले से कैसे लिखें देवनागरी में (रवि रतलामी), इंटरनेट पर हिंदी का आना (प्रकाश हिंदुस्तानी), ब्लॉगिंग : आदिम हिजिटल विद्या (अनूप शुक्ल), रचना के फिसलते मौके (बालेंदु शर्मा दाधीच), ट्रोलनामा (अटल तिवारी), सायबर गणतंत्र में आदिवासी (ए के पंकज), आभासी दुनिया की दिलचस्प दुविधाएं (अनुराधा बेनीवाल), दलित संघर्ष और सोशल मीडिया (डॉ रतन लाल), कानून की दहलीज पर डिजिटल दुनिया (विराग गुप्ता), रंगमंच का डिजिटल स्पेस (अमितेश कुमार) जैसे आलेख अपनी विषय वस्तु की गहराई से पाठकों को समृद्ध करते हैं । विनीत कुमार का 'ग्रंथालेख' पाठकों को कई ऐसे जरूरी पुस्तकों से रूबरू कराता है जिसे पढ़ा जाना आवश्यक है । सोशल मीडिया व न्यू मीडिया के विभिन्न पहलुओं से अवगत कराती ये पुस्तकें हिंदी पाठकों के लिए समझ के नयी खिड़कियां खोलती हैं ।
जाने-माने टीवी पत्रकार रवीश कुमार अपने आलेख (वाट्सएैप : शौचालय की इबारत) में कहते हैं - हमने खुलापन या लोकतांत्रिक होने के नाम पर जो भी जगह बनाई है, वह ह्वाट्सएैप में आते-आते क्यों सिमट जाती है? हमारा व्यवहार फेसबुक से ह्वाट्सएैप की यात्रा के दौरान इतना कैसे बदल जाता है? एक आदमी जो फेसबुक पर लिख रहा है वही आदमी ह्वाट्सएैप पर कितना अलग हो जाता है । चर्चित रेडियो प्रस्तोता यूनुस खान ने (ये रेडियो वायरल है) में लिखा है कि हम भयंकर 'मीडिया मिक्स' के दौर से गुजर रहे हैं । 'साथी हाथ बढ़ाना' की तर्ज पर अखबार, टीवी चैनल, रेडियो, वेबसाइट... सबको परस्पर सहयोग से आगे बढ़ना पड़ रहा है । ये रोटी-कपड़ा-मकान और इंटरनेट का जमाना है । सोशल नेटवर्क के विशाल समुद्र में हर इंसान स्मार्टफोन की नाव पर सवार है । ललित कुमार अपने आलेख 'सोशल मीडिया : कविता कोश के बहाने' में लिखते हैं क्षेत्रीय भाषाओं के साहित्य को सोशल मीडिया से अमूल्य सहायता मिली है ।
पारंपरिक मीडिया के सहारे क्षेत्रीय भाषाओं का साहित्य अपने भौगोलिक क्षेत्र से बाहर कम ही निकल पाता था । फेसबुक और वाट्सएैप ने मैथिली, भोजपुरी, बुंदेली, राजस्थानी, मगही, ब्रजभाषा, कन्नौजी, हरियाणवी आदि को नये पंख दे दिये हैं । कविता कोश के क्षेत्रीय भाषाओं के विभागों से बड़ी संख्या में रचनाएं सोशल मीडिया पर शेयर की जाती हैं । प्रभात खबर के पत्रकार पुष्यमित्र अपने आलेख 'कस्बा-कस्बा बनता खबरिया जाल' में बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट की पहुंच पर प्रकाश डालते हुए टिप्पणी करते हैं कि महानगरों से निकला सोशल मीडिया, न्यू मीडिया और डिजिटल क्रांति गांवों-कस्बों में हमारी अपेक्षा से कहीं अधिक रफ्तार से फल-फूल रहा है ।
इस अंक में विषयों की बहुलता तो है ही नयापन भी है, जो आज के समयानुकूल है । लेखक अपनी बात पूरी ईमानदारी व तेवर से करते हैं । लक्ष्मण यादव अपने आलेख में कहते हैं - सोशल मीडिया आपके भीतर के खोखलेपन को बड़ी चतुराई से उजागर करता है, जिसे सत्ता चतुराई से अपने पक्ष में उपयोग कर डालती है । सत्ताएं इस माध्यम का उपयोग प्रतिरोध की आवाजों को दबाने में भी करने लगी हैं ।फेक न्यूज व संदर्भहीन सूचनाओं को आधार बनाकर मीडिया का दुरुपयोग हो रहा है ।
रोहिन कुमार लिखते हैं - दुनिया भर के विवि, कॉलेजों और अन्य शिक्षण संस्थानों के पारंपरिक चरित्र को सोशल मीडिया ने बहुत हद तक बदल दिया है । भले सोशल मीडिया को आधिकारिक वक्तव्य नहीं माना जाता पर यह जरूर हुआ कि अनाधिकारिक माध्यम पर उठे सवाल भी सार्वजनिक स्पेस में आधिकारिक दावों की विश्वसनीयता को सवालों के घेरे में खड़ा कर देने की क्षमता रखने लगे । संजीव सिन्हा ने अपने आलेख में लिखा है - अनेक राजनेता ऐसे हैं जो सोशल मीडिया को चलाना नहीं जानते लेकिन इस माध्यम में उनकी उपस्थिति दमदार है । ऐसे खाते उनके द्वारा नियुक्त नवयुवकों या फिर प्रोफेशनल्स के द्वारा संचालित किए जाते हैं । सोशल मीडिया ने राजनीतिक संचार में बड़े बदलाव किए हैं ।
गिरींद्रनाथ झा ने कीबोर्ड, किसानी, किस्सागोई शीर्षक आलेख में लिखा है कि सोशल मीडिया के अलग-अलग प्लेटफॉर्म पर एक बनते किसान की डायरी लिखते हुए लगता है कि वर्चुअल स्पेस में किसानी के मानवीय पक्षों पर बातचीत होती रहे । फसल को लेकर आपसी मनमुटाव से लेकर मिथिला के सामा-चकेवा पर्व तक को किसान भोगता है । सोशल मीडिया में तेजी से लोकप्रिय हो रहे हिमोजी की निर्मात्री अपराजिता शर्मा ने अपने आलेख 'हिंदी वेब स्टिकर्स का आगाज' में हिमोजी के बनने के की कहानी विस्तार से बताया है । यह सच है कि फेसबुक और वाट्सएैप में इमोजी का इस्तेमाल खूब धड़ल्ले से होता है पर कई बार यूजर संदेह और कन्फ्यूजन में पड़ जाता है कि उसे किस भाव के लिए किस स्टीकर्स का उपयोग करना चाहिए । हिमोजी आपको ऐसे विचलन से बचाता है । इसके भाव (इमोशंस) इमोजी के मुकाबले काफी स्पष्ट हैं । न्यू मीडिया के लिए हिमोजी एक बड़ी उपलब्धि है ।
इस अंक में क्या - क्या है मैंने ऊपर बताने का प्रयास किया है, लेकिन काफी कुछ ऐसी बाते हैं जो पढ़ने के बाद आपके अंदर जोश पैदा करेंगी लेकिन यह आपके हार्मोन्स पर भी काफी कुछ डिपेंड करेगा कि जोश कहाँ और किस लेख को पढ़ने के बाद पैदा होगा, लेख सभी दमदार और शानदार हैं । सब इस अंक को जरूर पढ़ें ।
धन्यवाद ।
धन्यवाद ।
- सचिन समर ( प्रयोजनमूलक हिंदी "पत्रकारिता" )
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