पुरखा पत्रकार का बाइस्कोप’ नाम किताब का है. इसके लेखक हैं नगेन्द्रनाथ गुप्त. इस किताब का अनुवाद और संपादन किया है वरिष्ठ पत्रकार अरविन्द मोहन ने. किताब की विषय सूची में सात अध्याय हैं-
पुरानी किताब का नया सम्पादकीय
बचपन का बिहार
डेढ सौ साल पहले का कोलकता और बंगाल
सिन्ध का जीवन और पत्रकारिता
पंजाब मेँ बीता एक दशक
लौटकर कोलकता में
नीचे पहला चैप्टर ‘पुरानी किताब का नया संपादकीय’ दिया जा रहा है. इसे पढ़कर जाना जा सकता है कि ये किताब मीडिया वालों के लिए, बिहार वालों के लिए, हिंदी पट्टी वालों के लिए, पढ़े-लिखे लोगों के लिए क्यों जरूरी है…
किताब की नई भूमिका
यह एक अद्भुद किताब है. इतिहास, पत्रकारिता, संस्मरण, महापुरुषोँ के चर्चा, शासन, राजनीति और देश के विभिन्न हिस्सोँ के संस्कृतियोँ का विवरण यानि काफी कुछ. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है इसका कालखंड. पढने की सामग्री के लिहाज से 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद से देश के राजनैतिक क्षितिज पर गान्धी के उदय तक का दौर बहुत कुछ दबा छिपा लगता है. अगर कुछ उपलब्ध है तो उस दौर के कुछ महापुरुषोँ के प्रवचन, उनसे जुडा साहित्य और उनके अपने लेखन का संग्रह. लेकिन उस समय समाज मेँ, खासकर सामाजिक जागृति और आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र मेँ काफी कुछ हो रहा था. अंगरेजी शासन स्थिर होकर शासन और समाज मेँ काफी कुछ बदलने मेँ लगा था तो समाज के अन्दर से भी जबाबी शक्ति विकसित हो रही थी जिसका राजनैतिक रूप गान्धी और कांग्रेस के साथ साफ हुआ. यह किताब उसी दौर की आंखोँ देखी और भगीदारी से भरे विवरण देती है. इसीलिए इसे अद्भुद कहना चाहिए. एक साथ तब का इतना कुछ पढने को मिलता नहीँ. कुछ भक्ति भाव की चीजेँ दिखती हैँ तो कुछ सुनी सुनाई. यह किताब इसी मामले मेँ अलग है.
इतिहास की काफी सारी चीजोँ का आंखोँ देखा ब्यौरा, और वह भी तब के एक शीर्षस्थ पत्रकार का हमने नहीँ देखा सुना था. इसमेँ 1857 की क्रांति के किस्से, खासकर कुँअर सिन्ह और उनके भाई अमर सिन्ह के हैँ, लखनऊ ने नबाब वाजिद अली शाह को कलकता की नजरबन्दी के समय देखने का विवरण भी है और उसके बाद की तो लगभग सभी बडी घटनाएँ कवर हुई हैँ. स्वामी रामकृष्ण परमहंस की समाधि का ब्यौरा हो या ब्रह्म समाज के केशव चन्द्र सेन के तूफानी भाषणोँ का, स्वामी विवेकानन्द की यात्रा, भाषण और चमत्कारिक प्रभाव का प्रत्यक्ष ब्यौरा हो या स्वामी दयानन्द के व्यक्तित्व का विवरण. ब्रिटिश महाराजा और राजकुमार के शासकीय दरबारोँ का खुद से देखा ब्यौरा हो या कांग्रेस के गठन से लगातार दसेक अधिवेशनोँ मेँ भागीदारी के साथ का विवरण हर चीज ऐसे लगती है जैसे लेखक कोई पत्रकार न होकर महाभारत का संजय हो. कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर के लेखन अध्ययन मेँ प्रत्यक्ष भागीदारी हो या लाला लाजपत राय का शुरुआत करके शहीद होने का विवरण, ब्रह्म समाज का तीन धडोँ का आन्दोलन हो या आर्य समाज का दो धडोँ वाला हर चीज एक काबिल पत्रकार के हिसाब से लिखी और बताई गई है, न ज्यादा लम्बी न ज्यादा छोटी.
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