बंकिमचंद्र के निबंधों में गंभीर विचारशीलता के सहज ही दर्शन हो जाते हैं । एक निबंध में प्रेम के साथ ही अत्याचार के विरोधाभास को वे कितने सहज भाव प्रकट करते हैं , वह निम्नलिखित उदाहरण से स्पष्ट होता है वे कहते हैं "लोगों की धारणा है कि केवल शत्रु अथवा स्नेह, दया - ममता से शून्य व्यक्ति ही हमारे ऊपर अत्याचार करते हैं, किंतु इनकी अपेक्षा एक और श्रेणी के गुरुतर अत्याचारी हैं । उनकी ओर हमारा ध्यान हर समय नहीं जाता । जो प्रेम करता है, वही अत्याचार करता है । प्रेम करने से ही अत्याचार करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है । अगर मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, तो तुमको मेरा मतावलंबी होना ही पड़ेगा, मेरा अनुरोध रखना पड़ेगा । तुम्हारा इष्ट हो या अनिष्ट, मेरा मतावलंबी होना ही पड़ेगा । हां, यह तो स्वीकार करना पड़ेगा कि जो प्रेम करता है, वह तुम्हें जान - बूझकर ऐसे काम करने के लिए नहीं कहेगा, जिनसे तुम्हारा अमंगल होता हो, लेकिन कौन सा काम संगलकारी है और कौन - सा अमंगलकारी, इसकी मीमांसा कठिन है । कई बार दो लोगों का मत एक जैसा नहीं होता है । इस तरह की स्थिति में जो कार्य करते हैं और उसके फलभोगी हैं, उनका यह संपूर्ण अधिकार है कि वे अपने मत के अनुसार ही कार्य करें..!"
जो प्रेम करता है, वही अत्याचार करता है क्योंकि प्रेम करने से ही अत्याचार करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है
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किताब के पन्ने से
Nice line
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