Thursday, September 10, 2020

Poetry | घाट की सीढ़ियों पर बोझिल शाम | Sachin Samar | Voxwine


सुनो,
इन टहनियों पर जब कभी सूरज कुछ देर टँगा हुवा देखता हूँ  ना,
तब अक्सर तुम बहुत याद आती हो,
याद आता है वो वक़्त जब हम किसी बोझिल शाम घाट की सीढ़ियों पर बैठते थे !
और तुम अपना सर मेरे कांधे रख कर कहती थी,
"तुम्हारे बिना मैं नही रह पाऊंगी, यह कहकर तुम्हारी आँखे भर आती थी"
और कुछ देर तक हम सिर्फ गंगा के खामोशियाँ महसूस करते ।
"जैसे गंगा सिर्फ एक है उसी तरह तुम भी"
मैं भगीरथ करूंगा और एक दिन पा लूंगा तुम्हें,
जाति - धर्म के बंधनों को तोड़कर ।
हमारा प्रेम गंगा की तरह निर्मल है, अगर कुछ जहरीला है तो इंसानों के बीच ये जाति,
उसी तरह जैसे गंगा में घुला हुआ शिविरों और गंदे नहरों का पानी।
तुम्हारी चिताएं जायज हैं, "क्या खत्म नहीं कर सकता कोई इस भेदभाव को?"
सुनो ! यह भी खत्म होगा जब आएगी एक और महामारी जिसमें इंसान, इंसान बन जायेगा,
कुछ इसी तरह जैसे इस महामारी में गंगा सारा प्रदूषण समुंद्र में बह गया ।

- Sachin Samar
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